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Shiva Shadakshari Mantra Sadhna Evam Siddhi शिव षडाक्षरी मंत्र साधना एवं सिद्धि
Shiva Shadakshari Mantra Sadhna Evam Upasana Vidhi
शिव षडाक्षरी मंत्र साधना एवं सिद्धि
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सम्पुर्ण जगत में भगवान शिव के समान कोई नही हैा उनकी उपासना से बढ़कर कोई उपसाना नही है एवं उनके मंत्रो से बढ़कर कोई मंत्र नही हैा
मनुष्य योनि प्राप्त करना तभी सफल है जब यह भगवान शिव की सेवा एवं भक्ति में समर्पित हो जाये । भगवान शिव को प्रसन्न करना ही मनुष्य का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए । जिस व्यक्ति ने इस जन्म में भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया, उसके लिए करने को कुछ शेष नही रह जाता ।
वैसे तो भगवान शिव को प्रसन्न करने की कोई विधि नही है क्योंकि वो अपने भक्तों पर कब और कैसे प्रसन्न हो जायें ये कोई नही जानता फिर भी गुरूओं के मुख से जो कुछ भी प्राप्त हुआ उसके अनुसार व्यक्ति को साधना करनी चाहिए ।
भगवान शिव का षडाक्षरी मंत्र सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वशक्तिशाली मंत्र हैा इस मंत्र के जप से आध्यात्मिक विकास होता है एवं अन्त में मोक्ष प्राप्ति होती हैा इस संसार के सभी ऐश्वर्य एवं भोग शिव साधक के आगे नतमस्तक रहते हैा कोई दुख अथवा कष्ट भगवान शिव के साधक को नही छू सकता । शिव योगी सदैव निरोगी रहता है एवं 100 वर्ष की आयु पूर्ण कर मोक्ष प्राप्त करता हैा
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साधको के लिए कुछ अनमोल बातें
भक्ति, श्रद्धा , विश्वास एवं धैर्य साधना मार्ग के चार स्तम्भ हैं। हमारी साधना का प्रतिफल इन्ही चार स्तम्भों पर निर्भर करता है। जो लोग ये कहते हैं की उन्हें मंत्रो से कोई लाभ नहीं मिला तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनमे स्वयं ही कोई कमी है। आजकल ऐसा देखने में आता है कि लोग एक – दो अनुष्ठान करने के बाद ही अपना धैर्य खो देते हैं और अपने गुरु, मंत्र एवं इष्ट पर अविश्वास करने लगते हैं। एक साधक को इस तरह धैर्य नहीं खोना चाहिए। ऐसा कोई भी व्यक्ति इस संसार में नहीं है जिसे कोई कष्ट या दुःख नहीं है। स्वयं भगवान् राम एवं कृष्ण के जीवन से हमे ये सीख लेनी चहिये जिन्होंने अपने जीवन में अनेको कष्टों का सामना किया। जो लोग अविश्वास करके अथवा लाभ न मिलने के कारण गुरु, मंत्र एवं देवता को बदल देते हैं वो नरकगामी होते हैं एवं अन्य देवता भी उन्हें शरण नहीं देते। कितना भी कष्ट क्यों न आ जाये हमे अपने गुरु, मंत्र एवं देवता को नहीं त्यागना चहिये। प्राचीन काल में जितने भी साधक एवं ऋषि हुए हैं उन्होंने एक ही देवता की तब तक उपासना की है जब तक वो देवता स्वयं उनके सामने वरदान देने के लिए नहीं आ गये। रावण ने हजारों वर्ष तपस्या की एवं भगवान् को स्वयं आकर वरदान देने के लिए विवश कर दिया। हमें उन लोगो से सीख लेनी चाहिए। किसी भी मंत्र एवं देवता में उतनी ही शक्ति होती है जितना आपका उन पर विश्वास होता है।
साधना को आरम्भ करने से पूर्व एक साधक को चाहिए कि वह मां भगवती की उपासना अथवा अन्य किसी भी देवी या देवता की उपासना निष्काम भाव से करे। उपासना का तात्पर्य सेवा से होता है। उपासना के तीन भेद कहे गये हैं:- कायिक अर्थात् शरीर से , वाचिक अर्थात् वाणी से और मानसिक- अर्थात् मन से। जब हम कायिक का अनुशरण करते हैं तो उसमें पाद्य, अर्घ्य, स्नान, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पंचोपचार पूजन अपने देवी देवता का किया जाता है। जब हम वाचिक का प्रयोग करते हैं तो अपने देवी देवता से सम्बन्धित स्तोत्र पाठ आदि किया जाता है अर्थात् अपने मुंह से उसकी कीर्ति का बखान करते हैं। और जब मानसिक क्रिया का अनुसरण करते हैं तो सम्बन्धित देवता का ध्यान और जप आदि किया जाता है।
जो साधक अपने इष्ट देवता का निष्काम भाव से अर्चन करता है और लगातार उसके मंत्र का जप करता हुआ उसी का चिन्तन करता रहता है, तो उसके जितने भी सांसारिक कार्य हैं उन सबका भार मां स्वयं ही उठाती हैं और अन्ततः मोक्ष भी प्रदान करती हैं। यदि आप उनसे पुत्रवत् प्रेम करते हैं तो वे मां के रूप में वात्सल्यमयी होकर आपकी प्रत्येक कामना को उसी प्रकार पूर्ण करती हैं जिस प्रकार एक गाय अपने बछड़े के मोह में कुछ भी करने को तत्पर हो जाती है। अतः सभी साधकों को मेरा निर्देष भी है और उनको परामर्ष भी कि वे साधना चाहे जो भी करें, निष्काम भाव से करें। निष्काम भाव वाले साधक को कभी भी महाभय नहीं सताता। ऐसे साधक के समस्त सांसारिक और पारलौकिक समस्त कार्य स्वयं ही सिद्ध होने लगते हैं उसकी कोई भी किसी भी प्रकार की अभिलाषा अपूर्ण नहीं रहती ।
मेरे पास ऐसे बहुत से लोगों के फोन और मेल आते हैं जो एक क्षण में ही अपने दुखों, कष्टों का त्राण करने के लिए साधना सम्पन्न करना चाहते हैं। उनका उद्देष्य देवता या देवी की उपासना नहीं, उनकी प्रसन्नता नहीं बल्कि उनका एक मात्र उद्देष्य अपनी समस्या से विमुक्त होना होता है। वे लोग नहीं जानते कि जो कष्ट वे उठा रहे हैं, वे अपने पूर्व जन्मों में किये गये पापों के फलस्वरूप उठा रहे हैं। वे लोग अपनी कुण्डली में स्थित ग्रहों को देाष देते हैं, जो कि बिल्कुल गलत परम्परा है। भगवान शिव ने सभी ग्रहों को यह अधिकार दिया है कि वे जातक को इस जीवन में ऐसा निखार दें कि उसके साथ पूर्वजन्मों का कोई भी दोष न रह जाए। इसका लाभ यह होगा कि यदि जातक के साथ कर्मबन्धन शेष नहीं है तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। लेकिन हम इस दण्ड को दण्ड न मानकर ग्रहों का दोष मानते हैं।व्यहार में यह भी आया है कि जो जितनी अधिक साधना, पूजा-पाठ या उपासना करता है, वह व्यक्ति ज्यादा परेशान रहता है। उसका कारण यह है कि जब हम कोई भी उपासना या साधना करना आरम्भ करते हैं तो सम्बन्धित देवी – देवता यह चाहता है कि हम मंत्र जप के द्वारा या अन्य किसी भी मार्ग से बिल्कुल ऐसे साफ-सुुथरे हो जाएं कि हमारे साथ कर्मबन्धन का कोई भी भाग शेष न रह जाए।
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