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Sri Durga Tantram Book By Sri Yogeshwaranand Ji ( Bijatmak Durga Saptashati ) श्रीदुर्गा तन्त्रम् ( बीजात्मक दुर्गासप्तशती, गुह्यबीज नामावली तथा बीज नाम मन्त्रात्मक श्रीदुर्गासप्तशती का अनुपम संग्रह ) लेखक एवं संकलयिता योगेश्वरानन्द

पराशक्ति की उपासना में जितने भी ग्रन्थ प्रचलित हैं, उनमें सप्तशती का अत्यधिक महत्व है। धर्म के प्रति आस्था रखने वाले हिन्दू विशेष श्रद्धा के साथ इस पवित्र ग्रन्थ का पाठ करते हैं और उनमें से अधिकांश श्रद्धालुओं का मत है कि श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ प्रत्यक्ष फल प्रदान करने वाला होता है। कुछ लोगों का कथन है कि- ‘कलौ चण्डिविनायकौ’ अथवा ‘कलौ चण्डिमहेश्वरौ’ अर्थात् कलियुग में चण्डी का विशेष महत्व है। और वह पवित्र ग्रन्थ श्रीदुर्गासप्तशती ही है, जिसमें भगवती चण्डी के कृत्यों का उल्लेख विशेष सुन्दरता के साथ मिलता है।

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श्रीदुर्गा तन्त्रम् ( बीजात्मक दुर्गासप्तशती, गुह्यबीज नामावली तथा बीज नाम मन्त्रात्मक श्रीदुर्गासप्तशती का अनुपम संग्रह )

श्रीदुर्गासप्तशती’, मार्कण्डेय पुराण के अन्तर्गत तेरह अध्यायों में लिखा गया शक्ति के महात्म्य का वर्णन करने वाला एक अनुपम
ग्रन्थ है, जिसमें समस्त पुरुषार्थों को प्रदान करने वाली शक्ति के स्वरूप, चरित्र, उपासना और साधना के विधान आदि का सम्यक निरूपण किया गया है। यदि इस सप्तशती का पाठ विधिवत् समझकर और जितेन्द्रिय होकर विधिपूर्वक किया जाये तो ऐसा साधक पराशक्ति का अनुग्रह अवश्य ही प्राप्त कर सकेगा। पराशक्ति शब्द का प्रयोग यहाँ महालक्ष्मी के लिए किया गया है, क्योंकि प्राधानिक रहस्य में, जहाँ त्रिमूर्ति के उद्भव का प्रसंग आता है, वहाँ ‘ सर्वस्याद्या महालक्ष्मी ‘ – ऐसा स्पष्ट निर्देश है। यद्यपि महिषासुर दैत्य का वध करने के लिए देवों के तेजों से सम्भूता अष्टादश भुजाओं वाली महालक्ष्मी का वर्णन आता है तथापि
यह पराशक्ति महालक्ष्मी प्रकृतिरूपा है और त्रिमूर्ति में परिगणित महालक्ष्मी प्राधानिक रहस्य में कहे गये- श्री पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम् इत्यादि पद में उपस्थापित है। इन्हीं का तामसरूप महाकाली तथा सात्विकरूप महासरस्वती है, और वह तो स्वयं ही त्रिगुणात्मिका शक्ति के रूप में सभी में व्याप्त होकर स्थित हैं ही। सप्तशती सात सौ श्लोकों का अतुलनीय संकलन है और यह तीन भागों अथवा चरितों में विभक्त है। प्रथम चरित में ब्रह्माजी ने योगनिद्रा की स्तुति करके विष्णुजी को जाग्रत कराया है और इस प्रकार जाग्रत होने पर उनके द्वारा मधु-कैटभ का नाश किया गया है। द्वितीय चरित में महिषासुर-वध के लिए समस्त देवताओं की शक्ति एकत्र हुई और उस पुंजीभूत शक्ति के द्वारा महिषासुर का वध हुआ। तृतीय चरित में शुम्भ-निशुम्भ के वध के लिए देवताओं ने प्रार्थना की, तब पार्वतीजी के शरीर से शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ और क्रमश: धूम्र लोचन, चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज का वध होकर शुम्भ-निशुम्भ का संहार हुआ है।

श्रीदुर्गासप्तशती में चार स्थानों पर बहुत ही सुन्दर और मनोरम स्तुतियों का वर्णन किया गया है। पहली स्तुति प्रथम चरित में ब्रह्माजी के द्वारा की गयी स्तुति है, जिसे रात्रिसूक्त के नाम से जाना जाता है। दूसरी स्तुति द्वितीय चरित में महिषासुर दैत्य के वध के उपरान्त देवताओं द्वारा की गयी है, जबकि तीसरी और चौथी स्तुतियाँ तृतीय चरित में शुम्भ-निशुम्भ आदि के वध से पूर्व और बाद में की गयी हैं। तीसरी स्तुति को देवीसूक्त कहा जाता है। यद्यपि उपर्युक्त चारों स्तुतियाँ ही बहुत सुन्दर और महत्व वाली हैं किन्तु रात्रिसूक्त और देवीसूक्त विशेष रूप से महत्वपूर्ण माने गये हैं। ऐसा इसलिए है कि इन दोनों सूक्तों में शक्ति का विशिष्ट महत्व दर्शाया गया है। साधकगण सप्तशती के पाठ के पहले रात्रिसूक्त और पाठ के उपरान्त देवीसूक्त का पाठ स्वतन्त्र रूप
से करते हैं। सम्यक् पाठ के लिए साधकगण पाठ के आरम्भ में कवच, अर्गला, कीलक, अंगन्यास, करन्यास और नवार्ण मन्त्र का जप भी करते हैं और पाठ के अन्त में तीनों रहस्य भी पढ़ते हैं। कर्म, भक्ति और ज्ञान की त्रिविध मन्दाकिनी बहाने वाला यह ग्रन्थ भक्तों के लिए वांछाकल्पतरु है। सकाम भक्त इसके सेवन से अपनी कामनाओं के अनुरूप दुर्लभतम वस्तु या स्थिति सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, निष्काम भाव वाले भक्त परम दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। भगवती परमेश्वरी मनुष्यों को भोग, स्वर्ग और अपुनरावर्ती मोक्ष प्रदान करती हैं। उनकी आराधना करके ही ऐश्वर्य की कामना करने वाले राजा सुरथ ने अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया और वैरागी समाधि वैश्य ने दुर्लभ ज्ञान के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति की।

श्रीदुर्गासप्तशती’ पर अनेक संस्कृत टीकायें भाष्य एवं अनुवाद उपलब्ध हैं तथा समस्त भारतीय भाषाओं में भक्तों, विद्वानों एवं महापुरुषों ने इस गूढ़ विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। इस महान ग्रन्थ का प्रयोग आगमोक्त और निगमोक्त, जिन्हें तन्त्रोक्त और वेदोक्त भी। कहा जाता है, दोनों प्रकार से होता है। निश्चय ही अन्य कोई ऐसा स्तव उपलब्ध नहीं है, जो इससे स्पर्धा कर सके।

भगवती जगदम्बा की कृपा के परिणामस्वरूप मेरे अन्तश्चेतना में कई बार यह भाव उत्पन्न हुआ कि बहुसंख्यक हिन्दू भक्त यह कामना करते हैं कि वे भी श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करें। विशेषत: चारों नवरात्रों में सभी की इच्छा होती है कि कम से कम इन पर्वों में तो उन्हें यह पाठ करना ही चाहिए, किन्तु समयाभाव उनकी इस आकांक्षा को पूर्ण होने देने में बाधा बनता है, और ऐसे भक्त इच्छा होने के बाद भी अपनी उस कामना को पूरा नहीं कर पाते हैं। बस इसी कारण से मुझे प्रेरणा मिली और मैंने बीजात्मक सप्तशती को प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। बीजात्मक सप्तशती के रूप में पाठ करने से बहुत ही अल्प समय में दुर्गासप्तशती की कई आवृत्तियाँ की जा सकती हैं। जिन भक्तों के पास समय का अभाव है, वे केवल एक घंटा देकर भी पूरी बीजात्मक दुर्गासप्तशती का पाठ पूर्ण विधि-विधान के साथ सम्पन्न कर सकते हैं। बीजात्मक सप्तशती का संकलन करने के साथ ही मैंने तन्त्र दुर्गासप्तशती और बीज-नाम-मन्त्रात्मक सप्तशती का संकलन भी किया है। इस प्रकार कोई भी भक्त इन तीनों
सप्तशती में से कोई भी एक पाठ अपनी इच्छा और उपलब्ध समय के अनुसार सम्पन्न कर सकता है। यह आश्वासन देने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि बीजों का प्रभाव श्लोक की अपेक्षा अधिक होता है। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई भी भक्त बीजात्मक दुर्गासप्तशती का पाठ सम्पन्न करता है तो निश्चय ही उसे उस फल की प्राप्ति होगी जो उसकी कामना है। जो भक्तगण इस सप्तशती का पाठ करते आये हैं, वे भली-भाँति इस तथ्य से परिचित होंगे।

बीजात्मक-दुर्गा सप्तशती’ के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में एक कथा प्रकाश में आती है कि भगवान विष्णु ने जब वेदव्यास मुनि के रूप में अवतार लिया तब उन्होंने समस्त आध्यात्मिक वाङ्गमय को विविध रूपों में लिखा। जब वे मार्कण्डेय पुराण लिखने वाले थे, तब उसकी पूर्व तैयारी के लिए उन्होंने अनेक वर्षों तक भगवती की आराधना की। तब उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती पार्वती प्रकट हुई। तब वेदव्यास जी ने उनसे निवेदन किया कि वे मार्कण्डेय पुराण को निर्विघ्न एवं प्रभावी ढंग से लिख सकें, इसके लिए उनकी अनुमति चाहिए। इस पर भगवती की आज्ञा हुई कि उस सहस्त्राक्षरी मन्त्र को सप्तशती के सात सौ मन्त्रों में इस प्रकार विलीन कर दिया जाये कि प्रत्येक मन्त्र में कम से कम एक अक्षर बीज रूप में रह जाये। उसी के परिणामस्वरूप ये मन्त्र-बीज प्रकाश में आये।

बीज-मन्त्र के सम्बन्ध में परम पूज्य राष्ट्र-गुरु स्वामी जी का कथन है कि तन्त्रों में विशिष्ट भावों को प्रकट करने के लिए बीज-मन्त्रों का समावेश है। बीज मन्त्र अपने अर्थ ‘जप’ से प्रकट करते हैं। इससे कुण्डलिनी का उत्थान होता है और विविध दैविक शक्तियाँ जागृत होती हैं। नाम-मन्त्रों से जीवन में शुद्ध सात्त्विक भावों की अभिव्यक्ति होती है और मलिनता के कारण होने वाले दोषों का नाश होता है। कौल- कल्पतरु पं० देवीदत्त शुक्ल जी ने भी इस सम्बन्ध में अत्यन्त स्पष्ट रूप से कहा है कि अविश्वासी व्यक्ति भले ही किसी बीज मन्त्र को निरर्थक समझें, किन्तु साधक के लिए तो वह तेज या शक्ति का पुंज-स्वरूप ही होता है। (बीज-नाम-मन्त्रात्मक श्रीदुर्गा-सप्तशती, कल्याण मन्दिर प्रकाशन, प्रयाग)
इस प्रकार प्रस्तुत बीजात्मक श्रीदुर्गा सप्तशती, बीज-नामावली और बीज-नाम-मन्त्रात्मक सप्तशती का यह अनुपम संकलन, जिसमें सप्तशती के सात सौ मन्त्रों को बीज-रूप में प्रस्तुत किया गया है, का मूलतः यही उद्देश्य है कि इनके द्वारा साधक अपने हृदय में सगुण वाचक शक्ति को जागृत कर, निर्गुण वाच्य शक्ति चण्डिका (महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती) को उद्घाटित कर सके।
प्रस्तुत ग्रन्थ के संकलन में जिन ग्रन्थों की सहायता ली गयी है, उनके संकलन कर्ताओं और उनके प्रकाशकों का मैं हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ। साथ ही आस्था प्रकाशन मन्दिर, बागपत का भी बहुत ही आभारी हूँ उनके अथक प्रयास से यह संकलन इतने सुन्दर कलेवर में और इतनी शीघ्रता से आपको हस्तगत हो सका है।

दुर्गा सप्तशती का बीजात्मक रूप, जो उपासकों में परम्परा से अनुष्ठित होता रहा है और जो गुरुमुख से प्रदान किया जाता रहा है, निश्चय ही अति दुर्लभ और गोपनीय तन्त्रात्मक उपासना पद्धति है, उसे प्रस्तुत करते हुए मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रन्थ के प्रकाशन से साधकों को गम्भीर प्रोत्साहन मिलेगा और वे आध्यात्मिक ऊर्जा से सम्पन्न होंगे।

शुभाकांक्षी
योगेश्वरानन्द
Mob: 9917325788, 7827897842
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Shri Hanuman Vadvanal Stotra in Hindi, Sanskrit and English Pdf

Shri Hanuman Vadvanal Stotra in Hindi, Sanskrit and English Pdf ( श्री हनुमान वडवानल स्तोत्र )

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Vadvanal Stotra Meaning & Benefits in Hindi

महावीर हनुमान् महाकाल शिव के 11 वे रुद्रावतार हैं, जिनकी विधिवत् उपासना करने से सभी बाधाओं का नाश होता हैा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए नित्य वडवानल स्तोत्र का 108 बार पाठ करना चाहिये। इसके पाठ से भूत बाधा, प्रेत बाधा,  ब्रह्मराक्षस , ऊपरी बाधा का निवारण होता हैा सर्व कष्टों एवं रोगों का निवारण भी इसी पाठ से हो जाता हैा
ऐसा कोई भी कार्य नही है जो हनुमान जी अपने भक्तो के लिए ना कर सकें, बस आवश्यकता है सच्चे मन से उन्हें याद करने की ।

हनुमान जी के कुछ विशिष्ट मंत्र हैं जिनका जप यदि इस स्तोत्र के साथ किया जाये तो सभी कामनाओं की पूर्ति सम्भव हैा कोई भी साधना बिना गुरू की आज्ञा के ना करें ।

Vadvanal Stotra Meaning & Benefits in English

This stotra is in Sanskrit and it is creation of Bibhishana- Ravana’s brother. Initially this stotra starts with praise of shri Hanuman admiring his virtues and tremendous power. Then very wisely, God Hanuman is requested to remove all the diseases, bad health and all sorts of troubles from the life. Further God Hanuman is requested to protect from all sorts of fear, trouble and make us free from all evil things. Finally God Hanuman is requested to give the blessing, success Sound Health and everything we ask from him.

This stotra is very auspicious and powerful. Anybody reciting this stotra daily at least once; with full concentration, devotion and unshakable faith in mind, receives all the good things in life as described above. Please have a faith.

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Shri Hanuman Vadvanal Stotra in Hindi Sanskrit and English Pdf

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साधको के लिए कुछ अनमोल बातें

भक्ति, श्रद्धा , विश्वास एवं धैर्य साधना मार्ग के चार स्तम्भ हैं। हमारी साधना का प्रतिफल इन्ही चार स्तम्भों पर निर्भर करता है। जो लोग ये कहते हैं की उन्हें मंत्रो से कोई लाभ नहीं मिला तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनमे स्वयं ही कोई कमी है। आजकल ऐसा देखने में आता है कि लोग एक – दो अनुष्ठान करने के बाद ही अपना धैर्य खो देते हैं और अपने गुरु, मंत्र एवं इष्ट पर अविश्वास करने लगते हैं। एक साधक को इस तरह धैर्य नहीं खोना चाहिए। ऐसा कोई भी व्यक्ति इस संसार में नहीं है जिसे कोई कष्ट या दुःख नहीं है। स्वयं भगवान् राम एवं कृष्ण के जीवन से हमे ये सीख लेनी चहिये जिन्होंने अपने जीवन में अनेको कष्टों का सामना किया। जो लोग अविश्वास करके अथवा लाभ न मिलने के कारण गुरु, मंत्र एवं देवता को बदल देते हैं वो नरकगामी होते हैं एवं अन्य देवता भी उन्हें शरण नहीं देते। कितना भी कष्ट क्यों न आ जाये हमे अपने गुरु, मंत्र एवं देवता को नहीं त्यागना चहिये। प्राचीन काल में जितने भी साधक एवं ऋषि हुए हैं उन्होंने एक ही देवता की तब तक उपासना की है जब तक वो देवता स्वयं उनके सामने वरदान देने के लिए नहीं आ गये। रावण ने हजारों वर्ष तपस्या की एवं भगवान् को स्वयं आकर वरदान देने के लिए विवश कर दिया। हमें उन लोगो से सीख लेनी चाहिए। किसी भी मंत्र एवं देवता में उतनी ही शक्ति होती है जितना आपका उन पर विश्वास होता है।

साधना को आरम्भ करने से पूर्व एक साधक को चाहिए कि वह मां भगवती  की उपासना अथवा अन्य किसी भी देवी या देवता की उपासना निष्काम भाव से करे। उपासना का तात्पर्य सेवा से होता है। उपासना के तीन भेद कहे गये हैं:- कायिक अर्थात् शरीर से , वाचिक अर्थात् वाणी से और मानसिक- अर्थात् मन से।  जब हम कायिक का अनुशरण करते हैं तो उसमें पाद्य, अर्घ्य, स्नान, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पंचोपचार पूजन अपने देवी देवता का किया जाता है। जब हम वाचिक का प्रयोग करते हैं तो अपने देवी देवता से सम्बन्धित स्तोत्र पाठ आदि किया जाता है अर्थात् अपने मुंह से उसकी कीर्ति का बखान करते हैं। और जब मानसिक क्रिया का अनुसरण करते हैं तो सम्बन्धित देवता का ध्यान और जप आदि किया जाता है।
जो साधक अपने इष्ट देवता का निष्काम भाव से अर्चन करता है और लगातार उसके मंत्र का जप करता हुआ उसी का चिन्तन करता रहता है, तो उसके जितने भी सांसारिक कार्य हैं उन सबका भार मां स्वयं ही उठाती हैं और अन्ततः मोक्ष भी प्रदान करती हैं। यदि आप उनसे पुत्रवत् प्रेम करते हैं तो वे मां के रूप में वात्सल्यमयी होकर आपकी प्रत्येक कामना को उसी प्रकार पूर्ण करती हैं जिस प्रकार एक गाय अपने बछड़े के मोह में कुछ भी करने को तत्पर हो जाती है। अतः सभी साधकों को मेरा निर्देष भी है और उनको परामर्ष भी कि वे साधना चाहे जो भी करें, निष्काम भाव से करें। निष्काम भाव वाले साधक को कभी भी महाभय नहीं सताता। ऐसे साधक के समस्त सांसारिक और पारलौकिक समस्त कार्य स्वयं ही सिद्ध होने लगते हैं उसकी कोई भी किसी भी प्रकार की अभिलाषा अपूर्ण नहीं रहती ।
मेरे पास ऐसे बहुत से लोगों के फोन और मेल आते हैं जो एक क्षण में ही अपने दुखों, कष्टों का त्राण करने के लिए साधना सम्पन्न करना चाहते हैं। उनका उद्देष्य देवता या देवी की उपासना नहीं, उनकी प्रसन्नता नहीं बल्कि उनका एक मात्र उद्देष्य अपनी समस्या से विमुक्त होना होता है। वे लोग नहीं जानते कि जो कष्ट वे उठा रहे हैं, वे अपने पूर्व जन्मों में किये गये पापों के फलस्वरूप उठा रहे हैं। वे लोग अपनी कुण्डली में स्थित ग्रहों को देाष देते हैं, जो कि बिल्कुल गलत परम्परा है। भगवान शिव ने सभी ग्रहों को यह अधिकार दिया है कि वे जातक को इस जीवन में ऐसा निखार दें कि उसके साथ पूर्वजन्मों का कोई भी दोष न रह जाए। इसका लाभ यह होगा कि यदि जातक के साथ कर्मबन्धन शेष नहीं है तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। लेकिन हम इस दण्ड को दण्ड न मानकर ग्रहों का दोष मानते हैं।व्यहार में यह भी आया है कि जो जितनी अधिक साधना, पूजा-पाठ या उपासना करता है, वह व्यक्ति ज्यादा परेशान रहता है। उसका कारण यह है कि जब हम कोई भी उपासना या साधना करना आरम्भ करते हैं तो सम्बन्धित देवी – देवता यह चाहता है कि हम मंत्र जप के द्वारा या अन्य किसी भी मार्ग से बिल्कुल ऐसे साफ-सुुथरे हो जाएं कि हमारे साथ कर्मबन्धन का कोई भी भाग शेष न रह जाए।

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